इस कोरोना से अच्छा ही था वो बचपन मे माई के हाथ वाला करोना
सोशल काका
लोकल न्यूज ऑफ़ इंडिया
आज ना जाने क्यूँ अनायास माई का करोना याद आ गया आप मे से कईयो ने शायद खाया हो पर हां मैने तो छककर रोजाना ही अपने बचपन मे खाया है आप इसको शाम 4 बजे का फिक्सड मेन्यू बोल सकते है। वो दुध गडवा से मेटी निकालकर सुतुही (यह टिकोरा/आम छीलने का यंत्र भी था) से मेटी के पके हुए दूध की साढी (मलाई) को करो करो कर निकाल कर जावन जमाने से पहले हमे हाथ मे देते हुए माई की आज खूब याद आई। वो भी क्या दिन थे जब आज जैसा ही माहौल था कोई ज्यादा चिल्ल पो नही ना इतना ज्यादा पल्युशन। इस कोरोना ने तो दिन वैसे ही ला दिये सब साथ है घर मे हैं ना कोई कही जा रहा है ना लड़ रहा है ना झगड रहा है। सबके दिल मे थोड़ा थोड़ा सा सबके लिये सहयोग वाला जो प्यार आया है भले ही सेल्फ़ी या सोशल मीडिया पर सखी बघारने के लिये ही सही सिवाय उन पीएम केयर वाले महान आत्माओ को छोड़कर मानो दिन तो पहले जैसा आ गया। जहाँ किसी को ना कोई छू रहा है ना देख रहा है बस दो गज़ देह की दूरी रख रहा है और भले की ही बात कर रहा है। तब भी ऐसा ही था। सांझ ढलने से पहले ही माई करोना दे ही देती थी वैसे यह बहुत आसान नही था चार पाँच बार बोलने के बाद नम्बर आता और तब माई का वो हल्की ममतामयी हंसी के साथ ले माधो जी की ररा की तरह घेर लेते हो का शब्द आता तो हम समझ जाते अब तो करोना हमारे हाथ मे होगा और अगले दो चार मिनट बाद जीभ पर। माई का अंदाज भी निराला था वो करोना के साथ साढी भी देती थी कहती थी जल्दी खालो। क्योकी अगर उस समय बाबू जी देख लेते तो बस पूछो मत। शाम को दो चार बोझ ज्यादा ही चरी काटनी तय।
काश आज माई होती तो शायद किसी को अनाज की दिक्कत ना होती गाँव मे ना तो दही दूध और मट्ठे की क्योकी माई चोरी छुपे गाँव मे जिसके घर नही होता था हम करोना योद्धाओ(साढी वाले) से भिजवा ही देती थी और मजेदार बात यह की हम मस्ती से अपना काम अंजाम देते थे बिना किसी मिलिट्री फूलमाला के सम्मान के।
आज सच मे इस कोरोना से बहुत अच्छा लगता है वो माई के हाथ का करोना क्योकी तब सब कुछ नेचुरल था और हम आज़ाद थे बिना किसी लॉक डाउन के पर नियमो मे ऐसे बंधे की जरा भी किसी का नुक्सान नही ना प्रकृति का ना समय का ना अन्न का। आज हम कैद मे है जबरिया तब बाहर सब नेचुरल सा हो रहा है। हवा सांस लेने लायक और पानी पीने लायक।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें