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बर्तन और खाने का रिश्ता निराला 


देखिये जनादेश चर्चा  में -किन बर्तनों से बचना चाहिए


फजल इमाम मल्लिक


लोकल न्यूज ऑफ इंडिया
नई दिल्ली .जायकेदार और पौष्टिक भोजन हर किसी की चाहत होती है लेकिन इनके बीच महत्त्वपूर्ण सवाल पर अधिकांश लोग ध्यान नहीं देते. खानपान पर बात तो होती है लेकिन किस तरह के बरतनों का इस्तेमाल खाना बनाने में हो इसकी कभी चर्चा शायद ही सुनी हो. कैसे हों हमारे बर्तन और हम किन बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं. क्या वह सुरक्षित हैं खाना बनाने के लिए या उससे कोई नुकसान हो सकता है. जनादेश ने अपने कार्यक्रम भोजन के बाद-भोजन की बात में रविवार को बरतनों पर चर्चा की. देखा जाए तो अपने आप में यह चर्चा अनूठी रही और कहा जा सकता है कि पहली बार इस तरह की चर्चा किसी सार्वजनिक मंच पर हुई है. प्रियंका संभव ने चर्चा की शुरुआत की और कहा कि हम किस तरह के बरतनों में खाना बनाएं और बरतनों का स्वास्थ्य से क्या रिश्ता होता है, यह जानना जरूरी है. चर्चा में शेफ अन्नया खरे, पूर्णिमा अरुण, पत्रकार आलोक जोशी और जनादेश के संपादक अम्बरीश कुमार ने हिस्सा लिया. अम्बरीश कुमार ने चर्चा में हिस्सा लेते हुए कहा कि बरतनों का अनुभव मेरा बचपन से ही रहा है. तब हम लोग बारात जाते थे. बारात तब तीन दिनों का होती थी. आजकल ऐसी बारात नहीं होती. मुझे याद है कि तब एक बैलगाड़ी पर सिर्फ बरतन जाते थे. बारात में दो दिन खाना बनता था, खाना कोई महिला नहीं बनाती थीं. घर के पुरुष ही बनाते थे और बड़ी देग, कड़ाही सब लेकर जाते थे. अम्बरीश कुमार ने पहली बार कश्मीर जाने और वाज़वान का जिक्र करते हुए कहा कि वहां पहली बार इसका मजा लिया तो फिर देखने गया पीछे जहां वाझा लोग थे वहां देखा कि कतार लगा था बरतनों का, भारी-भारी बरतनों का. फिर लखनऊ में जब देखा भारी-भारी बिरियानी देग तो बरतनों को लेकर मेरी काफी उत्सुकता रही है. फिर पता चला कि पारंपरिक बरतन हैं, मुसलिम परिवारों में दहेज के साथ दिए जाने की परंपरा रही है. एक बरतन बहुत लोकप्रिय है वह है लगन. यह बिरयानी के लिए पुलाउ के लिए होता है और यह हाथ से बने होते हैं. देगों का इस्तेमाल होता है. यह तांबे के होते हैं. यह मुसलिम परिवारों में इस्तेमाल होते हैं. हमारे यहां कांसे, पीतल के बरतन इस्तेमाल होते हैं. सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती है कड़ाही जो लोहे के होते हैं. वैसे अब नानस्टिक का जमाना है.



पूर्णिमा अरुण ने कहा कि पारंपरिक बरतनों को रखने व सहेजने में थोड़ी सी मेहनत की जरूरत पड़ती थी. इसलिए धीरे-धीरे जब स्टील व अल्मुनियम के बरतनों का चलन शुरू हुआ तो लोगों ने उनका इस्तेमाल शुरू किया क्योंकि मेहनत कम पड़ती थी. सुविधानजक हैं फटाफट उन्हें साबुन से साफ कर लेते हैं. जबकि पुराने बरतनों को छोड़ने से नुकसान इससे बढ़ता गया. पुराने बरतन हमारी सेहत के हिसाब से होते थे. यानी हमें रोज आयरन मिले, रोज कैलशियम व फासफोरस मिले. ये बरतन बीमारी बचाने वाले बरतन थे. करीब पच्चीस-छब्बीस बीमारियों से बचाने वाले बरतन थे. इन बरतनों में सब्जी-दाल पकाने से हम इन बीमारियों से बच जाते थे. लेकिन सुविधा और सरलता की वजह धीरे-धीरे ये बरतन गायब होते गए और जो नए बरतन हैं वे सेहत के लिहाज से ठीक नहीं हैं.

पत्रकार आलोक जोशी ने कहा कि नानस्टिक की कहानी तो शुद्ध काहिली की कहानी है. खाना उसमें चिपकता नहीं है, मैंने तो कई घरों में देखा है वह धुलता ही नहीं है. कुछ पकाया और नल के नीचे डाल दिया, बस हो गई छुट्टी. लेकिन इसके साथ जुड़ी दूसरी चीज है वह यह कि अलग-अलग खानों के लिए अलग-अलग बरतनों का इस्तेमाल. हमारे यहां कहा जाता था कि खट्टा पीतल के बरतनों में नहीं बनाया जाना चाहिए. कोई चीज लोहे के बरतन में बनेगी, कोई लोहे के बरतन में नहीं बनेगी. पता नहीं क्यों मुझे शुरू से ही कलई के बरतनों के खाने को लेकर परहेज था. मेरा मानना था कि बरतनों में जो कलई लगा होता है वह खाने में घुलता है और इससे नुकसान होता है लेकिन पूर्णिमा जी कह रही हैं कि कलई के बरतन हमारे लिए पौष्टिक होता है. पूर्णिमा अरुण ने कहा कि रांगा से जो कलई होता था उससे कई बीमारियां दूर होतीं हैं.

अन्नया खरे ने चर्चा को आगे बढ़ाई और कहा कि माक्रोवेव या अवन का इस्तेमाल तो बंद नहीं कर सकते लेकिन बरतनों का इस्तेमाल कैसा करें, इस पर जरूर ध्यान दे सकते हैं. उन्होंने कहा कि बेकिंग के लिए हम अल्मुनियम के बरतन न इस्तेमाल कर शीशे का या सिलिकन का बरतन इस्तेमाल कर सकते हैं. सिलिकन आजकल नए तरीके के बरतन हैं जिसे बेकिंग के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं. इसमें बनाने से नुकसान नहीं होता है. चर्चा में सिलबट्टे का जिक्र भी आया, मिट्टी के बरतनों का भी और सिरेमिक का भी. मरतबानों की भी चर्चा हुई और पकाने के लिए कौन सा बरतन इस्तेमाल किया जाता है और खाने के लिए कौन सा, इसका जिक्र भी हुआ. बरतनों की यह चर्चा रोचक भी रही और ज्ञानवर्द्धक भी.


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