निराला के लिए करुणा और परपीड़ा हरण थे धर्म के मूल तत्व
डॉ. अरविंद कुमार शुक्ल
दु:ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तिगत जीवन दुख का सागर है। बचपन में ही माँ का गुजर जाना, और युवावस्था में जीवनसाथी मनोहरा देवी का साथ छोड़ देना जिनके द्वारा श्रीरामचंद्र कृपालु भजमन, ह्रदय भव भव दारुणम् को सुनकर निराला जी हिंदी की ओर आकृष्ट होते हैं। मनोहरा देवी के निधन से उत्पन रिक्तता वात्सल्य में तलाशते हैं 'आकाश बदलकर बना मही' किंतु महाकवि के साथ काल की निष्ठुरता का अंत कहाँ होने वाला था, 'कन्ये गत गतकर्मों का अर्पण कर, कर, करता मैं तेरा तर्पण। और यह अर्पण और तर्पण सूर्यकांत त्रिपाठी के जीवन का स्थाई भाव बन जाता है। जो कुछ भी है, दूसरों के लिए अर्पित। बचपन में मां का साया छूट गया था, इसलिए मात्र बेटा संबोधन से मोहित हो वृद्धा को जाड़े में अपनी रजाई दे देते हैं और 300 रुपये में से 100 रुपये साहित्यिक मित्र को, 60 रुपये परीक्षार्थी को और 40 रुपये का मनीऑर्डर जरूरतमंद को। यह है सूर्यकांत त्रिपाठी की शून्य साधना।
अंतिम जन के लिए सब कुछ समर्पित, इसलिए भिक्षुक उनके केंद्र में है। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये। भूख से सूख ओठ जब जाते दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते? घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। चाट रहे जूठी पत्तल वे, सभी सड़क पर खड़े हुए, और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए। भिक्षुक और श्रमिक गरीबी के पेट से उपजे हुए सहोदर है इस बात को निराला जी ठीक से समझते हैं इसीलिए वह लिखते हैं - 'वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर' वह एक तरफ सामंतवाद से उपजे दीन दलित की आवाज बन कर चतुरी चमार, कुल्ली भाट और अलका के माध्यम से बदलाव का आह्वान करते हैं। दूसरी तरफ 'अबे सुन बे गुलाब खून चूसा तुमने खाद का डाल पर इतरा रहा है अशिष्ट रे कैपिटलिस्ट'।
निराला जी दया, करुणा और परपीड़ा हरण को धर्म का मूल तत्व मानते हैं। भारतीय संस्कृति और धर्म द्वारा स्थापित मान्यताओं की वंदना करते हुए वर दे वीणावादिनी वर दे काट अंध उर के बंधन बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर कलुष भेद तम। बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर। और आह्वान करते हैं नव गति नव लय ताल छंद नव। राम की शक्ति पूजा के माध्यम से सत्य की विजय का घोष करते हैं। और छंदमुक्त काव्य के प्रवर्तक होते हुए भी जीवन में अपार दुख को सहते हुए भी, नैतिकता सामाजिकता, पारलौकिकता में असीम आस्था रखते हैं। इसीलिए जब मनोहरा देवी के निधन के बाद दूसरे विवाह का प्रस्ताव आता है तो ठुकरा देते हैं और इस रूप में अभिव्यक्त होते हैं। बांधो न नाव इस ठांव बंधु! पूछेगा सारा गांव बंधु! यह घाट वही जिस पर हंस कर वह कभी नहाती थी धंस कर आंखें रह जाती थीं फंस कर कंपते थे दोनों पांव बंधु! वह हंसी बहुत कुछ कहती थी फिर भी अपने में रहती थी सबकी सुनती थी, सहती थी देती थी सबके दांव बंधु! सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के काव्य में ही स्वाभिमान की झलक नहीं मिलती बल्कि यह जीवन की वास्तविकता में उभरती है और जब उस समय के शिक्षा जगत के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति अमरनाथ झा निमंत्रण देते हैं – आइए मेरे आवास पर और कविता सुनाइए तो निराला अपने पत्र में संपूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए यह कहते हुए ठुकरा देते हैं कि मेरे कविता का संसार दरबार नहीं है।
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