विजय शुक्ल
लोकल न्यूज ऑफ़ इंडिया
दिल्ली। अपनों की दुनिया में से एक और नाम कम हो गया। उसकी देह अब माटी में मिल गयी पर उसकी रूह का करिश्मा मेरे जेहन में सदा के लिए वास कर गया। जी हाँ मंगलेश डबराल जी की ही बात कर रहा हूँ। एक मुस्कुराता चेहरा ठीक वैसा जैसे पहाड़ की खूबसूरती मुस्कुराती रहती हैं। बड़े सरल और सहज वैसे ही जैसे उनके गाँव के पास से बहती मंदाकिनी और भगीरथ की निर्मलता।
आज वो बेबस याद आने लगे उनकी सीट के पास से दो बार चाय का कप लेकर मैं गुजरा और वो दौर शुक्रवार पत्रिका के प्रकाशन का मानो वापस लौट आया हो। उनकी मस्त देवानंद सरीखी लहराती चाल के साथ की विजय जी क्या थोड़ी देर के लिए मैं आपकी बालकनी किराए पर ले लूँ.
इतना सहज मैंने और शायद किसी के साथ महसूस किया हो। और जब बात वर्तनी और संसोधनो की आती तो मानो वो पहाड़ जैसे अटल खड़े रहते। कोई समझौता नहीं और कोई गुंजाइश नहीं किसी भी प्रकार की गलती की।
आज किसी ने मेरी एक खबर पर मुझसे चर्चा में मुझे बताया कि कोई अधिकारी मेरी भाषा से परेशान हैं कि पत्रकारिता वाली शैली नहीं हैं मेरे लिखने में। तब मंगलेश जी याद आये क्योकि एक बार उन्होंने कहा था कि आपके शब्दों में आपकी माटी की तासीर छुपी होती हैं और वही आपके अपनी पहचान हैं। लिखना पढ़ना तब जायज हैं जब वो आपकी अपनी तासीर के साथ परोसी जाय। वर्तनी और भाषा शैली तो ठीक वैसे ही हैं जैसे पहाड़ के जंगल की खूबसूरती और लोधी गार्डन की खूबसूरती।
पहाड़ की खूबसूरती तो आपके मन को भाती हैं आपको अपना बनाती हैं पर क्या लोधी गार्डन में आपको बसने का मन करेगा।
आज सच में उनके शब्द याद आ रहे हैं और वो काल फिर से मानो मेरे इर्द गिर्द घूम सा रहा हैं। वरिष्ठ पत्रकार , मेरे पारिवारिक अभिभावक , मित्र , सचेतक या आलोचक या यूं कहे कि मेरे एक सच्चे हितैषी और अच्छे व्यक्तित्व अंबरीश जी वाली शुक्रवार ने मंगलेश डबराल जी का साथ मुझे दिया तो मंगलेश डबराल जी ने पहाड़ की लालटेन जला मुझमे एक मित्रता की रौशनी सी भर दी। कभी ना बुझने वाली रौशनी . वो जगमगाहट तो आज भी हैं, पर वो लालटेन पहाड़ वाली अब मेरे बीच में नहीं रही।
मेरे बड़े मित्र को सादर नमन
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