आमिर अल्वी,
लोकल न्यूज़ ऑफ इंडिया,
भोपाल: हम आज बात करेंगे देशभर की मस्जिदों के इमामों की सूरते हाल पर, उनकी ज़िदंगी पर, जो रजिस्टर्ड मस्जिदें हैं जिनके इमामों और मोहज्जिनो को सरकार से सैलरी मिलती है उन्हें तो माली तंगी का समाना करना ही पड़ता है। लेकिन जो बस्तियों और आबादियों वाले इलाकों में मस्जिदे हैं उनके इमाम और मोहज्जिन के हालात तो और भी खस्ता हालत में है, ऐसे में सवाल सिर्फ़ सिस्टम और सरकार पर उठाना ही काफ़ी नहीं है बल्कि सवाल तो मुस्लिम क़ौम की अनदेखी पर भी उठेंगे, हमारी और आपकी गहरी नींद पर ही उठेंगे और इन सवालों का जवाब हमें देना होगा आख़िर उन इमामों के पीछे ही हम अपनी नमाज़ अदा करते हैं।
क़ौम की तरक़्क़ी आखिर कब होंगी
समाजसेवी आमिर अल्वी का कहना है कि पूरी क़ौम की रहनुमाई करने वाले जिनके पीछे हम नमाज़ पढ़ते हैं अगर यहीं मुफ़लिसी का शिकार होंगे तो क़ौम को तरक़्क़ी की राह कौन दिखाएगा, जब इमाम और मोहज्जिनो के बच्चे आला तालीम नहीं हासिल कर पाएंगे तो फिर क़ौम के बच्चों की तालीम की ताकीद कौन करेगा जब इमामों के घरों कि खस्ता हालात बोसीदा होंगे तो फिर क़ौम की तरक़्क़ी की हिकमते अमली कौन तैय्यार करेगा। आमिर ने कहा कि यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इमामों को मिलने वाली तनख्वाह नहीं बल्कि उनके साथ मज़ाक़ हैं, जिस क़ौम के पास वक़्फ़ जैसा सरमाया और लाखों करोड़ों रुपए खर्चा करने और कमाने वाले है उस क़ौम के इमाम कि माली तंगी का शिकार हों ये मज़ाक़ नहीं तो और क्या है इसीलिए आज इमामों को मिलने वाली तनख्वाह का मुद्दा उठाया है। देश के कई राज्यों में इमामों को सरकार तनख्वाह नहीं देती जिन राज्यों में देती हैं उनका हाल ऊंट के मुंह में ज़ीरे जैसा है, मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों में इमामों को अच्छी सैलरी दिए जाने का मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा है।
इन पैसों से ज़िंदगी कैसे चलेगी
मस्जिदें तो देशभर में बहुत बनीं लेकिन नमाज़ियों के न तो अंदाज़ बदले और न ही इमामों के हालात इमामों को मिलने वाली सैलरी की रक़म इतनी कम है कि बताते हुए भी हैरानी होती है, दिल्ली में भारी भरकम एलान के साथ इमामों की तनख़्वाह 18 हज़ार कर दी गई लेकिन मसला ये है कि इन्हें महीनों तनख्वाह मिलता ही नहीं, बंगाल में महज़ तीन हज़ार, केरल में चार हज़ार तेलंगाना में पांच हज़ार, राजस्थान और कर्नाटक में 8-8 हज़ार, बिहार में 15 हज़ार लेकिन सोचने की बात ये है कि इन पैसों से ज़िंदगी और परिवार एक साथ कैसे चलेगा। जहां मुसलमानों के नाम पर वोट बैंक कि राजनीति करी जाती है वहीं इन इमामों को भी अपनी राजनीति का हिस्सा बना लिया जाता हैं, पर इनकी माली और घरेलू हालत पर न तो कोई मुस्लिम नेता और ना ही कोई धर्म का ढेकेदार ध्यान देता है इनकी इस मुफलीसी और तंग हालात का कोई और नहीं बल्कि हम सब मुसलमान जिम्मेदार है कहने सुनने में कोई गलती रहीं हों तो माफ़ ज़रूर करें।
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