प्रो शैलेंद्र मणि त्रिपाठी खोना हम कुछ भी नहीं चाहते और पाना सब कुछ चाहते हैं। बिना खोये पाने की आकांक्षा अधूरी है क्योंकि इस जगत में जो भी हम पाना चाहते हैं। उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती हैं। वाहय जगत हो या अन्तर्जगत, जब हम मिटते है, स्वयं को मिटाते हैं और बहुत कुछ खोते हैं तब जाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। आज आदमी जो प्राप्त कर लेता हैं उसके खो जाने के डर से भयाक्रान्त हैं। जब वह भय में रहेगा तो जीवन में प्रवेश ही नहीं कर सकेगा। समग्र जीवन ही खाने और फिर आगे बढ़ने के शाश्वत नियम पर क्रियाशील है। मनुष्य के अलावा प्रकृति के और घटक भी जीव जन्तु, वनस्पतियां, पेड़, पौधे भी जब अपनी यात्रा तय करते हैं तो छोड़ते है, एक पोर से दूसरे पोर की और फिर अंतिम पोर तक की यात्रा छोड़ने की यात्रा है। बच्चा जब जन्म लेता है और जवानी तक पहुंचती ही वह बहुत कुछ छोड़ता है। बहुतो को छोड़ता हैं। इस छोड़ने में नाते, रिश्ते, सगे, सम्बन्धी, मित्र, यार, अच्छाई, बुराई गुणधर्म, सब कुछ शामिल है। प्राकृतिक और नैसर्गिक रूप में प्राप्त अपनी सहजता को भी वह छोड़ने लगता हैं। यह सहजता जीवन की वास्तविक गति है, छनद है