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वो एहसास कि मुझको मेरे गाँव ने छोड़ा .......



विजय शुक्ल 

लोकल न्यूज ऑफ इंडिया

मैंने गाँव नहीं बल्कि गाँव ने मुझे छोड़ा , मेरे अंदर का गाँव ना जाने इस शहर में कब खो गया मुझे पता ही नहीं चला।  क्योकि मेरे अंदर बसने वाले गाँव में मेरे अपने थे , उनकी उम्मीदे और उनके प्रति मेरी जिम्मेदारियों का वो एहसास था जो उनके अंदर मेरे होने और मेरी कर्मठता और कर्तव्यपरायणता का बोध कराती थी।  पर आज धीरे धीरे मेरे अंदर का गाँव मुझको अकेला छोड़ता गया और इतना अकेला कर गया कि अब ना मुझसे किसी को कोई उम्मीद हैं और ना ही मुझ पर किसी को ऐतबार।  आज मेरे चारो तरफ बाजार हैं और इस बाजार में सब कुछ लुटा मैं मानो अब उधारी चुकाने की लड़ाई लड़ रहा हूँ।  पर एक एहसास और उम्मीद जो थी कि  इस लड़ाई को जीतने के बाद मैं जरूर अपने अंदर अपना गाँव वापस बसा पाऊंगा वो अब धूमिल हो रही हैं।  क्योकि मेरे चारो तरफ अब सिर्फ मेरे ऊपर यकीन खो चुके लोग हैं जिनको मेरे होने से सिर्फ एक घुटन के मौजूदगी का एहसास हैं।  और शायद होना भी चाहिए। 

पर आज तो मानो इन्तहां हो गयी क्योकि ना जाने मेरी मुफलिसी की खबर उधार देने वालो लोगो पर पहुंच गयी फिर क्या था हमारी घनघोर बेइज्जती के साथ अयोग्यता का जो थप्पड़ पड़ा उससे लगा कि गाँव ने मुझे छोड़ा हैं ना कि  मैंने गाँव को छोड़ा। वो गाँव  की खुद्दारी और अपनी अकड़ ना जाने कितने बरस हो गए वही छोड़ आया कही या यूं कहे गाँव ने उनको मेरे अंदर रहने की इजाजत ही नहीं दी।  आज लीज की जमीन की तरह बस उस माटी पर मेरा नाम ही दर्ज होगा कहीं जिसको मेरे अपने अपने पैरो से मिटाने की कोशिश कर रहे होंगे इस आरोप के साथ कि  मैंने उनकी माटी खराब कर दी। यह दर्द हैं घातक पर इसकी टीन्स इसके होने का एहसास तो जानलेवा हैं। मेरे अपनों से आज जब मैं मदद की उम्मीद करता हूँ तो वो बात करना बंद करते हैं  और मेरी उस अर्ज़ी को अपनों और मुझसे जुड़े हर उस आम ख़ास तक ना जाने  कौन से डाक से भेजते हैं कि  मेरे होने या ना होने से वास्ता न रखने वाले लोग भी मेरे अस्तित्व पर सवालिया निशाँ लगा देते हैं। 



कुछ दो चार अच्छे दोस्त थे जो मुझे अपने उस दौर में मिले जब मैं अपने अंदर से जाते हुए गाँव को महसूस ना कर सका था और शायद उन्होंने उसी मेरे अंदर के गाँव पर यकीन कर आज तक ज़िंदा रखा अपने जेहन में जिम्मेदार और ईमानदार दोस्त की हैसियत और वजूद के साथ। पर अब वो भी शायद मेरे अंदर के गाँव के जाने के बाद बंजर पड़े मेरे जमीर पर यकीन वाली जमीन नहीं कड़ी कर पा रहे।  और मुझे चाहते हुए भी सलाह और सुझाव के अलावा सींचने की कोई कोशिश करना गंवारा नहीं समझते। 

कहने को तो सब हैं नाते रिश्ते दार चारो तरफ ,  जो समर्थ हैं।  जिनकी थोड़ी सी पहल शायद फिर से मेरे अंदर मेरा गाँव बसा दे।  पर अब वो चाहते ही नहीं या यूं कहे शायद मेरे अंदर के गाँव को मुझे अकेला छोड़ने में उन सब की मंजूरी रही होगी क्योकि उनके अंदर बसे उसी गाँव में कुछ पट्टीदार नए जो आये होंगे। उन्होंने मेरे अंदर गाँव को मेरे द्वारा ही किये जा रहे अनादर की तस्वीर मेरे उन अपनों को तसल्ली से मौका देख देखकर दिखाई होगी।  पर अब उनको कोसना उनको कुछ भी कहना शायद अपने उस  गाँव की तौहीन करना होगा।  जिसने मेरे अंदर अपना आशियाना मेरे बचपने से लेकर मेरी जवान होती उम्मीदों और परवान चढ़ती सपनो की दुनिया में आते आते रिहाइश के बतौर बिताया होगा। बस इतना जरूर कहना चाहूंगा मेरे  उन सब अपनों से कि  मेरा गाँव एक ना एक दिन मुझमे जरूर बसेगा। मेरे गाँव की जिम्मेदारियाँ पूरा करने की ताकत मुझमे जरूर आएगी। मैं लोगो की उम्मीदों को जमीन पर सींचूँगा भी और बड़ा भी करुगा।  पर डर  बस यही हैं कि कही अपने उस गाँव की जुदाई के एहसास के साथ मेरी सांस में बसी आस की लौ बुझ ना जाय।  मेरे इस जिद की आग कहीं इस बंजर पड़ी जमीन में बेसुध हो बुझ ना जाय। 

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
अपने उम्मीद और एतबार की छांव मुझ पर रहने दो
अब इसी के बोझ से थकान दूर होगी, मेरे पैरों पर अपना पाॅव रहने दो
मानुष मिट्टी और खपरैल छोड़कर पत्थरों से दिल लगा लिया मैंने
यह बाजार,यह भीड़ और तरक्की सब ले लो मगर मुझ में मेरा गांव रहने दो
Aditya Narayan ने कहा…
Ati ummda Vijay ji, aisa mehsoos hua ke dard saajha hain… khud se khud ka samvaad, waad - pratiwaad, jaane kaun si thi wo baat jo humein hamare apnon se hi door karti gayi, doori badhti gayi aur hamein pata bhi na chala…
Ab toh aisa lagta hai ke bass jiye ja rahe hain… Karz jo liye the apnon se, bass apnon ko hi dard diye ja rahe hain… bass apnon ko hi dard diye ja rahe hain…

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