दुश्मन से नहीं, बेरोजगारी, अलगाव और वीरानी पर विजय पाने का जीवंत उदाहरण है "कारगिल वार मेमोरियल"
डॉ विजय शुक्ल
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया
1999 की जून-जुलाई की वो रातें द्रास में सिर्फ हिमपात या बंदूकें नहीं बरसा रही थीं — वे एक ऐसी गाथा लिख रही थीं, जो आने वाले वर्षों में न केवल सैनिकों के सम्मान की दीवार बनेंगी, बल्कि एक बर्फ़ीले वीरान कस्बे को भारत के राष्ट्र-चेतना के मानचित्र पर अंकित कर देंगी।
द्रास, लद्दाख का वह छोटा सा शहर, जो कभी भारत का दूसरा सबसे ठंडा इलाका कहलाने के अलावा बहुत कम जाना जाता था — 1999 के बाद सिर्फ तापमान नहीं, तक़दीर से भी पहचाना जाने लगा। लेकिन यह बदलाव कोई जादू की छड़ी से नहीं हुआ। यह 25 सालों की एक सधी हुई सामाजिक-सैन्य यात्रा का नतीजा है, जो आज भी जारी है।
1999-2002: युद्ध के बाद वीरानी और शोक
जब युद्ध थमा, तब द्रास में शांति से ज्यादा सन्नाटा था। हर ओर जली हुई चौकियाँ, टुकड़ों में बिखरे मोर्चे, और डर से खाली हुए घर। स्थानीय लोग, जिन्होंने युद्ध के दौरान गांव छोड़ दिए थे, लौट तो आए, लेकिन आर्थिक और मानसिक स्थिति जर्जर थी। सेना ने युद्ध में शहीद हुए जवानों की याद में द्रास युद्ध स्मारक (Kargil War Memorial) की आधारशिला रखी। उस वक्त ये स्मारक किसी टूरिस्ट स्पॉट के रूप में नहीं, बल्कि सेना और शहीद परिवारों के लिए एक निजी श्रद्धांजलि स्थल के रूप में बना।
2003-2007: जब श्रद्धा ने आधारशिला रखी रोज़गार की
इन वर्षों में धीरे-धीरे सेना ने द्रास में कुछ बुनियादी सुविधाएं स्थापित कीं। सड़कें बेहतर हुईं, BSNL टावर लगाया गया, और सेना के सहयोग से स्थानीय युवाओं को ट्रांसलेटर, गाइड और ड्राइवर के तौर पर तैनात किया गया। हर साल 26 जुलाई को आने वाले सैनिकों, अफसरों और शहीदों के परिजनों की संख्या बढ़ने लगी — और उसी के साथ कुछ चाय की दुकानें, तंबुओं की छोटी रुकावटें, और किराये की जीपें उभरने लगीं।
2008-2012: पर्यटक आए, परंपरा बदली
2009 में विजय की 10वीं वर्षगांठ को राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया। मीडिया ने युद्ध के स्थलों पर रिपोर्टिंग शुरू की। इसी दौरान ‘टाइगर हिल’ और ‘टोलोलिंग’ जैसी चोटियों को स्थानीय गाइडों ने दिखाना शुरू किया।
द्रास में कुछ परिवारों ने घर के एक हिस्से को 'होम-स्टे' के रूप में देना शुरू किया। सेना ने स्थानीय शिल्प और बुनकरी को बढ़ावा देने के लिए महिला समूहों के साथ काम करना शुरू किया, जिससे लद्दाखी कंबल, दस्ताने, और ऊन के वस्त्रों की बिक्री होने लगी।
2013-2017: स्मारक से 'डेस्टिनेशन' तक का परिवर्तन
इन वर्षों में द्रास सिर्फ श्रद्धा स्थल नहीं रहा — यह एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन गया। BRO (Border Roads Organisation) ने सड़कों को सॉलिड बनाया, जिससे श्रीनगर से द्रास की दूरी कम समय में तय होने लगी। Zojila पास तक यात्रा आसान हुई।
फोटोग्राफर, ब्लॉगर्स, और बाइकर्स ने इसे एक "must visit patriotic circuit" घोषित किया। स्थानीय युवाओं ने होटल प्रबंधन के कोर्स किए और छोटे-बड़े 10-12 होटल खुल गए। अब वहां कपड़े की दुकानें, मिठाई की दुकानें और स्थानीय संस्कृति पर आधारित कैफे बनने लगे।
2018-2021: डिजिटल युग और सैन्य-सामाजिक सौहार्द
इस दौर में द्रास वॉर मेमोरियल में LED डिस्प्ले, डिजिटल गैलरी और मल्टीमीडिया केंद्र खोला गया। सेना ने स्थानीय स्कूलों के बच्चों को आमंत्रित करना शुरू किया, जिससे देशभक्ति और स्थानीय भागीदारी बढ़ी। युवाओं को NCC शिविरों और सेना में प्रवेश की प्रेरणा मिली।
कोविड काल में टूरिज्म जरूर थमा, लेकिन स्मारक बंद नहीं हुआ। सेना ने मास्क बनवाने और राशन वितरण में स्थानीय लोगों को रोजगार दिया। इसी दौरान Army Goodwill School में पहली बार स्थानीय लड़कियों को साइंस विषयों में पढ़ाई शुरू करवाई गई।
2022-2025: स्थायी विकास और गौरव का प्रतीक
अब द्रास में हर साल लगभग 2.5 लाख से ज्यादा पर्यटक आते हैं। युद्ध स्मारक पर प्रवेश के लिए बाकायदा QR code टिकट व्यवस्था है। स्थानीय बच्चों की रोजगार दर 40% तक बढ़ी है। सेना ने ‘जवान-जन सहभागिता मंच’ बनाया है, जहां गांववाले अपने सुझाव दे सकते हैं कि अगले कार्यक्रम में क्या किया जाए।
2024 में ‘कारगिल एक्सपीरियंस सेंटर’ बना, जिसमें युद्ध की VR यात्रा करवाई जाती है। यहां तक कि स्थानीय गाइड अब अंग्रेजी, हिंदी और लद्दाखी में ट्रेंड हैं। अब स्थानीय महिलाएं अपने बनाए ऊनी वस्त्र और हस्तशिल्प को Amazon जैसी साइटों पर भी बेच रही हैं, जिसमें आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन ने मदद की।
और अब — 2025 में, 26वीं विजय वर्षगांठ पर...
अब द्रास न सिर्फ एक स्थल है, बल्कि राष्ट्रभक्ति का ध्रुवतारा है। अब यहां होटल नहीं, ‘यादों की छांव’ मिलती है, दुकानों में केवल मुनाफा नहीं, गर्व भी बिकता है, और हर नागरिक अब सिर्फ युद्ध का साक्षी नहीं, शांति का प्रहरी भी है।
द्रास अब केवल युद्ध का गवाह नहीं, एक सैन्य-सामाजिक संवाद का जीवंत उदाहरण है।
यहां टैंक की गरज से लेकर चूल्हे की आंच तक, और सैनिक की सैल्यूट से लेकर पर्यटक की तस्वीर तक — सब कुछ भारत की उस सामूहिक चेतना को दर्शाता है, जहां युद्ध स्मारक एक दीवार नहीं, जीवन की दिशा बन गया है।
यही है कारगिल युद्ध स्मारक की सच्ची विजय — सिर्फ दुश्मन से नहीं, बेरोजगारी, अलगाव और वीरानी से भी।
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