विजय शुक्ल
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया
दिल्ली. भारत की राजधानी दिल्ली से कहीं दूर उत्तराखण्ड की राजधानी में सुजीत कुमार विकास के खिलाफ निलंबन वाला खेल जीरो टॉलरेंस वाला प्रपंच कम एक साज़िश ज्यादा लग रही है और यह कोई "सिस्टमिक क्लीन-अप" नहीं थी, बल्कि एक "सिस्टम प्रोटेक्शन" थी — जिसमें असली भ्रष्टाचारियों ने मिलकर ईमानदार को ही खतरा मान लिया। और शैलेश बगौली इसके अगुवा चेहरा जरूर हैं — लेकिन असली स्क्रिप्ट किसी और ने लिखी, निर्देशन लॉबी ने किया, और मंच पर पर्दा गिराया गया DPC की पूर्व संध्या पर।
उत्तराखंड पेयजल निगम में अधीक्षण अभियंता सुजीत कुमार विकास का निलंबन महज एक विभागीय कार्रवाई नहीं है। यह एक ऐसा प्रशासनिक प्रकरण बन चुका है जिसमें ईमानदारी, वरिष्ठता और क्षेत्रीय पहचान को योजनाबद्ध तरीके से सत्ता की भूख के नीचे कुचला गया है। सुजीत का नाम हटाकर केवल एक अफसर को नहीं, बल्कि कुमाऊं के पूरे प्रशासनिक ढांचे को यह संदेश दिया गया कि तुम्हें शीर्ष पदों तक पहुंचने का कोई अधिकार नहीं है।
इस पूरे मामले की पृष्ठभूमि 2022 से शुरू होती है, जब संजय कुमार नामक एक व्यक्ति ने सुजीत पर ₹10 लाख रिश्वत लेने का आरोप लगाया। यह रकम उनकी पत्नी की साझेदारी वाली एक फर्म के खाते में ट्रांसफर की गई थी। मगर न कोई एफआईआर हुई, न विजिलेंस की जांच, न कोई विभागीय कार्यवाही। सब शांत रहा। सुजीत काम करते रहे, विभाग की तकनीकी जिम्मेदारियों को संभालते रहे। 2023 में उन्हें कुमाऊं ज़ोन का प्रभारी मुख्य अभियंता नियुक्त किया गया। यह पद तकनीकी रूप से निर्णायक होता है और विभागीय गहराई में सक्रिय भूमिका का केंद्र बिंदु भी।
2024 आते-आते पेयजल निगम में प्रबंध निदेशक पद की स्थायी नियुक्ति के लिए विभागीय पदोन्नति समिति (DPC) की प्रक्रिया शुरू होती है। यह वही पद है, जिस पर बैठकर पूरे विभाग के ठेके, टेंडर और नीति निर्धारण पर अधिकार मिलता है। सुजीत वरिष्ठता, अनुभव और कार्य निष्पादन के आधार पर इस दौड़ में सबसे ऊपर थे। मगर तभी एक और प्रक्रिया समानांतर शुरू होती है। कुछ नाम विभागीय फाइलों में “ऊपर” से भेजे जाते हैं, जो योग्यता में भले पीछे हों, मगर समर्थन और समीकरणों में आगे। जून 2024 में पेयजल निगम के चेयरमैन के पद पर शैलेश बगौली की नियुक्ति होती है। यह नियुक्ति भी अपने आप में विवादित मानी जा रही है। ना तो इसकी अधिसूचना सार्वजनिक है, ना यह स्पष्ट है कि इसे राज्यपाल और DOPT से स्वीकृति प्राप्त है। अगर यह नियुक्ति केवल शासनादेश के सहारे की गई है, तो यह स्वयं एक कानूनी प्रश्न है।
5 जुलाई 2025 को DPC की संभावित तारीख़ तय होती है। सुजीत का नाम निर्णायक सूची में ऊपर चलता है। ठीक तीन दिन बाद, 8 जुलाई को वही पुराना 2022 वाला मामला फिर से खोला जाता है और विजिलेंस को पत्र भेजा जाता है। 12 जुलाई को सुजीत को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया जाता है — न कोई सफाई का मौका, न जवाब की प्रतीक्षा, न रिपोर्ट का निष्कर्ष। इस आदेश पर हस्ताक्षर होते हैं उसी चेयरमैन के, जिसकी नियुक्ति स्वयं एक कानूनी प्रश्न बन चुकी है। 17 जुलाई को DPC स्थगित कर दी जाती है और अब विभाग के गलियारों में नया नाम चर्चा में आ जाता है — जो DPC सूची में सुजीत से नीचे था, मगर 'प्रेरित' था।
यह पूरा घटनाक्रम बताता है कि यह सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला नहीं, बल्कि DPC प्रक्रिया को प्रभावित करने की एक योजनाबद्ध साज़िश है। ये साज़िश किसी एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं थी — इसका निशाना था वह हर अधिकारी जो अपनी योग्यता से, बिना पर्ची, बिना पैरवी, बिना लॉबी के ऊपर तक आना चाहता है। इस मामले में ठेकेदार लॉबी की भूमिका भी संदिग्ध है। सूत्रों के अनुसार पिछले छह महीनों में कुछ निजी कंपनियों और ठेकेदारों ने शासन स्तर पर सुजीत की कार्यशैली को लेकर आपत्तियाँ दर्ज कराईं। उनका आरोप था कि वह सहयोग नहीं करते। मगर सवाल यह है कि क्या एक अधिकारी का “ठेकेदारों से असहयोग” अब सेवा दोष बन गया है?
इस प्रकरण में गढ़वाल बनाम कुमाऊं की परछाईं भी लगातार महसूस की जा रही है। सुजीत, कुमाऊं से आते हैं और पेयजल निगम में शीर्ष पदों पर गढ़वाल लॉबी की मज़बूत उपस्थिति पहले से है। यह पहली बार नहीं है जब कुमाऊं से आए किसी अधिकारी को DPC प्रक्रिया से पहले किनारे किया गया हो। सूत्र यह भी बताते हैं कि कुछ निर्णयकर्ता अधिकारी यह नहीं चाहते थे कि निगम की कमान एक स्वतंत्र सोच वाले, गैर-राजनीतिक कुमाऊंनी अफसर के हाथ में जाए।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। 'ज़ीरो टॉलरेंस' की नीति का दावा करने वाली सरकार क्या इस पूरे घटनाक्रम से अनभिज्ञ है? क्या उन्हें यह बताया गया कि सुजीत को हटाना क्यों आवश्यक था? या फिर यह चुप्पी इस साज़िश का मौन समर्थन है? यदि मुख्यमंत्री कार्यालय यह नहीं जानता कि विभागीय पदोन्नति से पहले वरिष्ठ अधिकारी को किस प्रकार हटाया गया, तो यह प्रशासनिक विफलता है। और अगर जानकर भी कुछ नहीं किया गया, तो यह सत्ता की सहभागिता है।
यह मामला अब किसी एक निलंबन या DPC की सूची का नहीं है। यह संकेत है — कि सिस्टम में अब योग्यता एकमात्र पात्रता नहीं रही। यहां जरूरी है कि आप 'किसके' हैं, 'कहाँ से' हैं और 'किसके लिए' हैं। और अगर आप इनमें से कुछ नहीं हैं — तो फिर आप सुजीत बनते हैं। और सुजीत का मतलब है, आपको हटाया जा सकता है — बिना कारण बताए, बिना जवाब मांगे, बिना न्याय के।
एक मांग तो बनती हैं कि इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जांच कराई जाए, DPC प्रक्रिया की फाइलें सार्वजनिक की जाएं, और चेयरमैन की नियुक्ति की वैधता पर विधिक परीक्षण कराया जाए। यह मामला किसी एक अफसर का नहीं, बल्कि उस हर अधिकारी का है जो सिर्फ अपने काम से, बिना लॉबी के, ऊपर तक जाना चाहता है। अगर आज सुजीत को इस तरह हटाया जा सकता है, तो कल कोई भी सुरक्षित नहीं।
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