मेरे जनित्र मेरे प्रणेता
अमित शुक्ला 'अजस्र'
सृष्टि में पहली किलकारी के साथ प्रारब्ध से हमें जो मिलते हैं, वह हमारे माता-पिता ही हैं ।इन संबंधों में सिंधु सी अनुरक्ति होती है। जो आजीवन पवित्र वरेण्य प्रेम का रूप होता है। एक बेटे के रूप में मुझे सदा अपने पिता का आलम्बन मिला।मामूली सी बात से लेकर गूढ़ज्ञान तक पिताजी का बोध इतना है कि जितनी गहरी वटवृक्ष की जड़ें धरती में समाई हुई, और उतना ही अडिग और गझिन भूमि के ऊपर।जीवन के विभिन्न आरोह और अवरोह की परिस्थिति में मैंने उन्हें हमेशा धीरोदात्त ही पाया। बचपन से लेकर एक पिता बन जाने तक मेरे जीवन में ऐसे कई अवसर आए जब मैंने अपनी परेशानी उनसे छुपानी चाहिए.... कि वे व्यर्थ ही परेशान होंगे ,लेकिन मेरे मुख की असारता बिना शब्दों के ही प्रवाद कर जाती और वे प्रश्न कर बैठते, क्या बात है ...?इतने परेशान क्यों दिख रहे हो? यह मेरे लिए दूसरा चिंतन का विषय बन जाता कि मैं अपनी समस्या कहूं या पहले यह अनुसंधान करूं कि ऐसा हर बार कैसे संभव है? यह आखिर कौन सी विद्या है ....?जो मैं अब तक न सीख पाया!!!
एक अमुख्य देहात से ,पिता के प्रेम से वंचित कुछ मामूली सुविधाओं के बीच पढ़ -लिख कर उच्च शासकीय सेवा तक उनका जीवन निर्दय अध्यवसाय और चुनौतीपूर्ण रहा। उसके बावजूद अपने परिवार और समाज में हमेशा विस्मयकारी समरूपता बनाकर कुछ देने की ही चित्तवृत्ति रही। पिताजी ने जितना लब्धप्रतिष्ठ जीवन जीया... उतना लोगों का स्नेह भी पाया। उनके जीवन सीख से मैंने भी कुछ बातें सीखी.... वे हमेशा कहते हैं मनुष्य को हमेशा आत्मवत् दृष्टि से समव्यवहार करना चाहिए, यही शाश्वत सुख है। जीवन में किसी का दर्द बांट सको.. यही सच्ची मानव सेवा है। वे हमेशा मेरे सच्चे मार्गदर्शक रहे हैं। उनके दिखाए पथ पर उनके आशीर्वाद से हमेशा अग्रसर रहूं। नमन!!!
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