आज सत्तर साल पार बुढ़ापे वाले भारत में मैंने 38 साल वाले भारत को सुना। लगा मानो हमने मध्यमवर्गीय भारत से आज गरीब भारत की दहलीज तक आने का सफर तय कर लिया हो। विकास की बयार के झूठे सपनो के बीच हमने अपना अस्तित्व खोने की एक युवा यात्रा का साक्षी बनने का गौरव नहीं दंश झेला हो। यह तो सच हैं कि नानी के घर ले जाने वाली इक्के तांगे और बैलगाड़ी वाली दुनिया से कार तक आ गए पर हकीकत तो यह हैं कि अब नानी के साथ मानो नानी के अपनेपन वाली दुनिया का वो समाज भी हमने खो दिया इन बयालीस सालो में।
राजीव के भाषण में किसान मजदूर , गरीब आदिवासी माँओ के देश या विदेश में रह रहे मर्द और बच्चे शब्द बहुत कुछ कह रहे हो या हमको बताना चाह रहे हो कि एक समय था जब दस महीनो का सफर पंजाब से असम तक को जोड़ने के साथ साथ शिक्षा नीति और देश नीति में बदलाव की घोषणाओं का था। वो अलग बात हैं तब भाषण में पंडित जी और इंदिरा का होना लाजमी था अब जैसे अटल जी का होना होता हैं। पर पंडित जी से अटल तक का अपना एक सफर था। शायद तब तक मध्यवर्गीय वालो का भारत ज़िंदा था और उनकी वजह से भारत के सपनो का देखा जाना भी। आज के भारत को जब मैं अपनी इन बयालीस सालो के गांव की गलियों की बादशाहत से शहर की गलियों की गुमनामी तक के सफर को देखता हूँ तो बस यही पाता हूँ कि आज की जॉकी से तो बड़ा अच्छा था वो बाबूजी वाला हम सबको महीने में दिया जाने वाला नाड़े वाला कच्छा। हालांकि तब भी हमें पायजामे की बजाय निक्कर की चाहत अपनी तरफ खींचा करती थी पर उस समय अपने बड़ो की वो आँखों की बंदिशों से बाहर झाँक पाना हमारी सीमा से बाहर था। और आज हमारे उन अपनों की ना हमारे आँखों में कही पैमाइश हैं ना जीवन में। वो हमें नहीं शायद हम उन सबको खो चुके हैं। क्योकि बयालीस साल मेरे बढ़ने के सफर में बयालीस साल वो सब भी तो बढे हैं अपनी भारत की इस यात्रा में।
राजीव गांधी के उस सन पचासी वाले भाषण के देशवासियो और आज के मोदी जी के मितरो में बस यही बयालीस साल का सफर हैं . जहां आज हम अपने वजूद और अपनी जमीन को खोकर गांव के बादशाहत से शहर की तंग बेजान गलियों की हुकूमत का दम्भ भरते हैं। कहाँ नीम के पेड़ के नीचे खुले आसमान में सोने की उस आजादी से, आज बंद खिड़कियों से ऐसी कमरों में ऑक्सीजन की कमी ना हो इसके डर की गुलामी में सोने का प्रयास करते हैं। तब हमारे चारो ओर वो आम का टिकोरा और नीम का निमकौर खाने और खेलने का साधन जो होता था, आज बस व्हाट्सप्प और फेसबुक में झूठी दुनिया का खिलौना खुद ही बन तमाशा देख रहे हैं। आज ना जाने क्यूँ मेरे पीएम के आसूं देखकर भी गुस्से का एहसास हो रहा हैं जिस पर हम बिलख बिलख कर रो सकते थे। और मानो वो शब्द मितरो भाइयो और बहनो का डंक दिल में महसूस हो रहा हैं और मेरा आज का मितरो वाला पीएम शायद उस देशवासियो वाले पीएम के सामने बौना नजर आ रहा हैं क्योकि आज मध्यमवर्गीय वालो का वो भारत मजदूर और किसानो को दो हजार की लाइन में खड़ा करने वाले इस विश्वगुरु की चाहत वाले अमीरो का भारत नजर आ रहा हैं।
मैंने आजादी नहीं देखी क्योकि मैं सिर्फ तीन साल का था यह बोलकर मानो राजीव गाँधी ने सब कुछ कह दिया हो कि उनका भारत की आजादी की जंग से वास्ता तो नहीं था। पर आज के हमारे पीएम जब खुद अपने आपको गोरखनाथ , गुरुनानक और कबीर की पंचायत का सरपंच बताकर, बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के लिए जेल जाने की बात बता ,अपने शरीक होने की अनसुनी अनकही दास्तान सुनाते हैं तो 38 साल वाले उस भारत के वो शब्द बड़े लगते हैं आज के पचहत्तर पार वाले भारत के। मानो हमारे बयालीस आते आते हमारी सोच को बुढ़ापा आ गया हैं तजुर्बे का नहीं अंधभक्ति का। कैद का। अपने परायो की तंग दुनिया वाली गलियों का।
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